मुंबई. बहुत दिनों बाद विप्लव जैन अपने दोस्त सूरज के घर उससे मिलने पहुँचा। सूरज अपने दोस्त को देखकर खुश हो गया, उसे अन्दर बुलाया और दोनों दोस्त बैठकर इधर-उधर की बातें करने लगे। इतने में सूरज ने अपनी पत्नी से कहा “हमारा दोस्त आया है भई, कुछ नाश्ता वगैरह लाओ!” ये सुनकर विप्लव ने औपचारिकता में कहा “आप तकलीफ मत कीजिए मैं नाश्ता नहीं करूँगा, हाँ चाय पी लूँगा, बना दो।”
थोड़ी देर बाद चाय बनाकर लाया गया। विप्लव ने देखा कि उनके मना करने के बावजूद सूरज की पत्नी ने नाश्ते में गरमा-गरम समोसे बना दिए हैं। गरमा गरम समोसे और चटनी को देखकर विप्लव के मुँह में पानी आ गया। पहला समोसा उसने झिझकते हुए खाया। “और ले ना … शरमा मत अपना ही घर है!” विप्लव के दोस्त ने एक और समोसा पकड़ाते हुए कहा। “नहीं..नहीं बस हो गया, इतना काफी है!” -विप्लव ने उन्हें रोकते हुए कहा।
“अबे खाना, ज्यादा फॉर्मेलटी मत दिखा!” -सूरज ने पीठ पर थप्पा मारते हुए कहा। इतना कहने की बस देर थी की विप्लव समोसे पर टूट पड़ा। सूरज अपने पहले समोसे को ठंडा करने के लिए फूँक ही रहा था, तब तक विप्लव चार समोसे धूंक चुका था। चौथा समोसा आते-आते विप्लव ने अपनी पैन्ट को ढीला भी कर लिया।
विप्लव समोसे के प्लेट को भी बेदर्दी से दबा-दबा कर चटनी खा रहा था। उसकी स्पीड देखकर सूरज को अपने महंगे प्लेट की चिंता होने लगी कि कहीं ये प्लेट भी ना खा जाए। उसने टोकते हुए कहा “प्लेट को छोंड देना, प्लेट खाने की चीज़ नहीं है!”
“हाँ-हाँ बिलकुल!” -अपना आखिरी समोसा दबाते हुए विप्लव ने कहा। समोसा को उसके उचित अंजाम तक पहुंचाने के बाद विप्लव ने डकार लेते हुए कहा “अब मैं चलता हूँ, बहुत देर हो गई है।” कहते हुए वो चला गया।